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कभी तो रुको,
सोचो खड़े होकर,
कहाँ ले आये हो खुद को,
कितनी दूर आ गए हो तुम|
कभी तो मुड़ो,
और देखो उन खुशियों को,
जिसे छोड़ आये हो तुम,
पीछे किसी रास्ते में|
कभी तो सोचो,
कि क्या तुम वही हो,
जो कभी बनना चाहते थे,
या क्या पाया इस दुनिया में तुमने|
कभी तो जानो,
कि दौलत जिसे तुम अपना कहते हो,
तुम्हें बस आराम दे सकती है,
चैन कभी नही|
कभी तो समझो,
खुशियां दुसरो के प्यार से मिलती है,
और प्यार,
हमेसा दिल से होता है|
कभी तो बनाओ,
अपनी जिंदगी को जिंदगी की तरह,
जहा हो दुसरो की खुशिया पहले,
और अपना स्वार्थ अंत में|
कभी तो बनो,
प्यार का वो समंदर,
कि कोई भी खत्म न कर सके,
इंसानियत के पानी को तुम्हारे दिल से|
कभी तो रुको ,
कभी तो सोचो,
कभी तो समझो,
कि ये जीवन बस तुम्हारा है,
और तुमसे बेहतर इसे कोई नही जी सकता|
और अंत में प्रज्वलित करो,
इंसानियत की वो मसाल,
जो बदल दे इस दुनिया में ,
जीवन की परिभाषा|
-विजय कुमार खेमका
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